बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
अथवा
क्या लक्ष्य कभी भी साधन का औचित्य सिद्ध करता है? आलोचनात्मक विवेचन कीजिये।
अथवा
साध्य साधन के स्वरूप को विवेचित कीजिए।
उत्तर -
परिचय
किसी कार्य के विषय में नैतिक निर्णय के लिये सम्बन्धित कर्म के साध्य (End) तथा साधन (Mean) का अनिवार्य रूप से विचार किया जाता है। वास्तव में साध्य तथा साधन के सन्दर्भ में ही नैतिक कर्म का अध्ययन किया जा सकता है। नीतिशास्त्र में साध्य तथा साधन का प्रश्न विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। नीतिशास्त्र को साध्य के एक विज्ञान के रूप में ही जाना जाता है। नीतिशास्त्र विभिन्न साध्यों तथा परम साध्य का अध्ययन करता है। कुछ विद्वानों ने कर्म के साधन को भी महत्व प्रदान किया है तथा स्वीकार किया है कि यदि साध्य अच्छा है, तो उसके लिये किसी भी साधन को अपनाया जा सकता है। इस मत के अनुसार, "साध्य साधन के औचित्य को ठहराता है" (End justifies the means)। इस मान्यता के पक्ष तथा विपक्ष में विभिन्न मत प्रस्तुत किये गये हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं-
(1) साध्य साधन को प्रभावित करता है - कुछ विद्वानों ने कर्म के नैतिक निर्णय में कर्म के साध्य को विशेष महत्व दिया है। इस मत के समर्थकों का कहना है कि यदि साध्य अच्छा है तो साधन के विषय में विचार की कोई आवश्यकता ही नहीं। साध्य साधन को प्रमाणित करता है। व्यक्ति आचरण में साधन की पवित्रता का विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। एक ईसाई सन्त ईसाई गरीबों के लिये जूते बनाने के लिये अमीरों के घरों से प्रायः चमड़ा चुराया करते थे। उनके इस कार्य को नैतिक ठहराया जाये या अनैतिक? साध्य को अधिक महत्व देने वालों में कार्ल मार्क्स का नाम उल्लेखनीय है। उनके अनुसार साध्य तथा साधन पर अलग-अलग विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि साध्य अच्छा है तो साधन स्वयं ही अच्छा हो जाता है। इसके विपरीत यदि साध्य बुरा है तो उसके लिये जो भी साधन अपना लिया जाये, वह साधन बुरा ही माना जायेगा। इसी आधार पर मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने के लिये मजदूरों को क्रान्ति के साधन को अपनाने की राय दी थी। उनके विचारानुसार लक्ष्य की प्राप्ति, जो साधन सबसे शीघ्र करा दे वही साधन उत्तम है। साम्यवादी समाज की स्थापना क्योंकि क्रान्ति के माध्यम से सम्भव हुई अतः क्रान्ति उचित है।
(2) साधन साध्य को प्रमाणित करता है - साधन साध्य के महत्व के विषय में दूसरा मत यह है कि साधन के आधार पर ही साध्य का मूल्यांकन करना चाहिये। यदि किसी कर्म के लिये अपनाया जाने वाला साधन बुरा या अशुभ हो तो भले ही साध्य कितना भी अच्छा हो कर्म को अशुभ ही माना जायेगा। इस मत को अर्थात् "साधन ही साध्य को प्रमाणित करता है" (Means justifies the end) को प्रतिपादित करने वालों में गाँधी तथा श्री अरविन्द मुख्य हैं।
साध्य तथा साधन के सम्बन्ध एवं सापेक्ष महत्व को हिन्द स्वराज्य में गाँधी जी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, "साधन बीज है और साध्य वृक्ष, इसलिये जो सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है वही सम्बन्ध साधन और साध्य में है। शैतान की उपासना करके मैं ईश्वर भजन का फल नहीं पा सकता इसलिये यह कहना कि हमें तो ईश्वर को भजना है, इसके लिये साधन चाहे शैतान को ही क्यों न बनाया जाये, बिल्कुल अज्ञान की बात है। हम तो जैसा करते हैं वैसा ही फल पाते हैं।' इस कथन से स्पष्ट होता है कि साधन का विशेष महत्व है तथा साधन के आधार पर ही साध्य का औचित्य आँकना चाहिये। इस तथ्य को एक अन्य प्रकार से भी प्रस्तुत किया गया है। वास्तविकता यह है कि हम परम साध्य के विषय में पूर्ण रूप से निश्चित नहीं है। उसके विषय में तो केवल कल्पनायें तथा अनुमान ही हैं। हमारे सामने तो साधनों एवं साध्यों की एक लम्बी श्रृंखला है। किसी एक सन्दर्भ में जिसे हम साध्य मानते हैं वही किसी अन्य को प्राप्त हो जाता है जो पुनः श्रृंखला के आगे बढ़ने पर साधन का रूप ले लेता है। इस प्रकार की सापेक्षता को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारे नियन्त्रण में केवल साधन ही हैं साध्य नहीं। इस स्थिति में हमें सर्वाधिक महत्व साधन के औचित्य को देना चाहिये। इस विषय में योगीराज श्री अरविन्द के प्रस्तुत कथन का उल्लेख करना भी आवश्यक है, "हमारे साधन उतने ही महान होने चाहिये जितना कि हमारा साध्य और उसका पता लगाने तथा साध्य की प्राप्ति के लिये साधन को प्रयोग करने के लिये शक्ति को स्वयं अपने अन्दर शक्ति के अनन्त स्रोत को खोजने से ही प्राप्त किया जा सकता है।"
(3) आलोचना एवं निष्कर्ष - उपर्युक्त वर्णित दो विपरीत मतों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि ये दोनों ही मत अपने आप में पूर्ण नहीं बल्कि दोनों ही मत एकांगी हैं। वास्तव में साध्य तथा साधन का पारस्परिक घनिष्ठ परन्तु पर्याप्त जटिल सम्बन्ध है। इनमें से किसी एक को न तो अधिक महत्व ही दिया जा सकता है और न ही किसी एक की अवहेलना ही की जा सकती है। यदि हम साध्य को महत्व देते हैं तो डाकू मानसिंह तथा स्वर्गीय विनोबा भावे में अन्तर स्पष्ट करना कठिन है। डाकू मानसिंह लूट एवं हिंसा द्वारा एकत्र धन-सम्पत्ति को गरीबों में बाँटता था जबकि सन्त जो लोगों से भूदान में प्राप्त होने वाली जमीन को गरीब भूमिहीनों में बाँटते थे। दोनों का साध्य समान था परन्तु साधन भिन्न भिन्न थे। यहाँ सामान्य व्यक्ति भी कहेगा कि डाकू के साधन उचित नहीं है। इसके विपरीत अनेक बार अनुचित साधनों को अपनाना भी उचित ठहराया गया है। जैसे कि महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा द्रोणाचार्य के वध के लिये झूठ बोलना श्रीकृष्ण ने उचित ठहराया था। सामान्य रूप से प्रत्येक चिकित्सक एवं शल्य चिकित्सक रोगी को. स्वस्थ बनाने के लिये विभिन्न कष्टदायक उपायों (साधनों) को अपनाया करते हैं। इस रूप में साधन की तुलना में साध्य को ही अधिक महत्व दिया जाता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि वास्तव में किसी भी कार्य के विषय में नैतिक निर्णय के लिये सम्पूर्ण परिस्थिति का समुचित ढंग से विश्लेषण किया जाना चाहिये। गाँधीजी ने भी साधनों को अपनाने में अपवादों को स्वीकार किया था। शल्य चिकित्सा तथा प्राण-रक्षा के लिये किसी अंग को काट देने के उदाहरण इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। अतः साध्य एवं साधनों के विषय में विवेक एवं पूर्ण विश्लेषण से काम लेना चाहिये।
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